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तुर्की भारत की नाराज़गी की फ़िक्र क्यों नहीं करता है?

पाकिस्तान, तुर्की दोस्ती ज़िंदाबाद!”

ये शब्द तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म एक्स पर लिखे हैं.

मंगलवार को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने अर्दोआन का शुक्रिया अदा किया और फिर उन्होंने इस अंदाज़ में शहबाज़ शरीफ़ को जवाब दिया.

भारत और पाकिस्तान जब संघर्ष के दौरान आमने-सामने थे तब तुर्की खुलकर पाकिस्तान का साथ दे रहा था.

ऐसा पहली बार नहीं है जब तुर्की भारत-पाकिस्तान के किसी मसले पर पाकिस्तान के साथ खड़ा हुआ हो. संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर तुर्की ने कई मौक़ों पर पाकिस्तान का समर्थन किया है.

भारत-पाकिस्तान संघर्ष में तुर्की

 भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष शुरू होने के बाद 9 मई को अर्दोआन ने पाकिस्तान के समर्थन में एक्स पर पोस्ट किया था.

उन्होंने पाकिस्तान के लोगों को भाई की तरह बताया था और उनके लिए अल्लाह से दुआ की बात कही थी. साथ ही उन्होंने पहलगाम हमले की अंतरराष्ट्रीय जांच वाले पाकिस्तान के प्रस्ताव का भी समर्थन किया था.

हमले के कुछ दिन बाद टर्किश एयरफोर्स का सी-130 जेट पाकिस्तान में लैंड हुआ था. हालांकि तुर्की ने इस लैंडिंग को ईंधन भरने से जोड़ा था. इसके अलावा संघर्ष से पहले तुर्की का युद्धपोत भी कराची पोर्ट पर था और तुर्की ने इसे आपसी सद्भाव से जोड़ा था.

संघर्ष के दौरान भारत ने दावा किया था कि आठ मई को पाकिस्तान ने बड़ी संख्या में ड्रोन से हमला किया था, जो तुर्की निर्मित सोनगार ड्रोन्स थे.

हालांकि, पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ने हमले की बात से इनकार किया था.

सोनगार ड्रोन्स हथियार ले जाने में सक्षम यूएवी यानी मानव रहित हवाई वाहन हैं जिसे तुर्की की डिफ़ेंस फ़र्म आसिसगॉर्ड ने डिज़ाइन और विकसित किया है.

तुर्की पश्चिम एशिया में इकलौता ऐसा देश था जिसने खुले तौर पर ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की निंदा थी. खाड़ी के दूसरे देशों ने पाकिस्तान के प्रति समर्थन से परहेज किया था.

भारत के साथ क्यों नहीं है तुर्की?

साल 2023 के फ़रवरी महीने में तुर्की और सीरिया में ख़तरनाक भूकंप आया. हज़ारों लोगों की मौत हुई और लाखों बेघर हो गए थे.

भारत सरकार ने राहत और बचाव के लिए तुर्की और सीरिया में ‘ऑपरेशन दोस्त’ की शुरुआत की थी. इस ऑपरेशन के तहत भारत से विमान के ज़रिए तुर्की में राहत सामग्री भी भेजी गई थी.

तब भारत में तुर्की के तत्कालीन राजदूत फिरात सुनेल ने कहा था, “यह ऑपरेशन भारत और तुर्की के बीच दोस्ती को दर्शाता है और दोस्त हमेशा एक-दूसरे की मदद करते हैं.”

यह एक मानवीय मदद थी लेकिन उम्मीद की जा रही थी कि इससे दोनों देशों के संबंध बेहतर होंगे.

तुर्की भारत को दोस्त बताता है और पाकिस्तान को भाई.

जब-जब दोनों में से एक चुनना होता है ज़्यादातर मौक़ों पर तुर्की पाकिस्तान के साथ दिखाई देता है.

आज भारत सऊदी अरब और यूएई के साथ मज़बूत संबंध होने का दावा करता है, जो ऐतिहासिक रूप से पाकिस्तान के क़रीबी रहे हैं. लेकिन तुर्की इस मामले में अलग क्यों है?

डॉ. ओमैर अनस तुर्की की अंकारा यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय संबंध विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं.

वह इस सवाल के जवाब में कहते हैं, “भारत के सऊदी अरब और यूएई से संबंध आज के दौर में ज़रूरी हो गए हैं क्योंकि भारत को तेल ख़रीदना है. इसके अलावा भारत के लाखों कामगार इन देशों में काम करते हैं. जबकि तुर्की और भारत के बीच व्यापारिक संबंध कम हैं और एक-दूसरे पर निर्भरता ज़्यादा नहीं है. इसलिए तुर्की इतनी फ़िक्र नहीं करता जबकि सऊदी अरब और यूएई या तटस्थ रहते हैं या भारत के साथ हमदर्दी जताते हैं.”

र्की और भारत के बीच राजनयिक संबंध 1948 में स्थापित हुए थे. लेकिन कई दशक बीत जाने के बाद भी दोनों क़रीबी साझेदार नहीं बन पाए.

तुर्की और भारत के बीच तनाव की दो अहम वजहें मानी जाती हैं. पहला कश्मीर के मामले में तुर्की का पाकिस्तान की तरफ़ झुकाव और दूसरा शीत युद्ध में तुर्की का अमेरिकी खेमे में होना जबकि भारत गुटनिरपेक्षता की वकालत कर रहा था.

शीत युद्ध संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के बीच 1947 से 1991 तक का एक लंबी राजनीतिक और सैन्य प्रतिस्पर्धा थी.

जब शीत युद्ध कमज़ोर पड़ने लगा था तब तुर्की के ‘पश्चिम परस्त’ और ‘उदार’ राष्ट्रपति माने जाने वाले तुरगुत ओज़ाल ने भारत से संबंध पटरी पर लाने की कोशिश की थी.

1986 में ओज़ाल ने भारत का दौरा किया था. इस दौरे में ओज़ाल ने दोनों देशों के दूतावासों में सेना के प्रतिनिधियों के ऑफिस बनाने का प्रस्ताव रखा था. इसके बाद 1988 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तुर्की का दौरा किया था. राजीव गांधी के दौरे के बाद दोनों देशों के रिश्ते कई मोर्चों पर सुधरे थे.

लेकिन इसके बावजूद कश्मीर के मामले में तुर्की का रुख़ पाकिस्तान के पक्ष में ही रहा इसलिए रिश्ते में नज़दीकी नहीं आई.

2014 में नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने और 2014 में ही अर्दोआन प्रधानमंत्री से राष्ट्रपति बने. 2017 में अर्दोआन राष्ट्रपति के रूप में भारत आए लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कभी तुर्की के आधिकारिक दौरे पर नहीं गए.

2019 में पीएम मोदी को तुर्की जाना था लेकिन यूएनजीए में अर्दोआन के कश्मीर पर बयान के बाद यह दौरा टाल दिया गया था.

पाकिस्तान का लगातार समर्थन करने के बाद सवाल उठता है कि क्या तुर्की को भारत की नाराज़गी की फ़िक्र नहीं होती है?

दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में पश्चिम एशिया अध्ययन केंद्र के प्रोफ़ेसर एके पाशा कहते हैं, “अमेरिका फै़क्टर के कारण तुर्की को इस बात की चिंता नहीं है कि भारत क्या सोचेगा. भारत अमेरिका का क़रीबी देश है और तुर्की के अमेरिका और यूरोप से पिछले कई सालों से संबंध अच्छे नहीं हैं.”

पाकिस्तान और तुर्की की इस्लामी पहचान लंबे समय से दोनों देशों के बीच मज़बूत साझेदारी का आधार रही है.

लेकिन यह सिर्फ़ यहीं तक सीमित नहीं है. संकट के समय दोनों एक दूसरे के साथ खड़े भी दिखाई देते हैं.

शीत युद्ध के दौरान पाकिस्तान और तुर्की सेंट्रल ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन और क्षेत्रीय सहयोग विकास जैसे संगठनों में एक साथ थे.

पाकिस्तान ने साइप्रस में ग्रीस के ख़िलाफ़ तुर्की के दावों का लगातार समर्थन किया है. इसके लिए पाकिस्तान साल 1964 और 1971 में सैन्य सहायता देने का वादा कर चुका है.

तुर्की भी कश्मीर के मसले पर लगातार पाकिस्तान का समर्थन करता आया है.

पाँच अगस्त 2019 को जब भारत ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म किया था तो अगले महीने सितंबर में ही अर्दोआन ने संयुक्त राष्ट्र की आम सभा को संबोधित करते हुए विशेष दर्जा ख़त्म करने का विरोध किया था.

हालांकि, डॉ. अनस का कहना है कि पिछले कुछ समय से अर्दोआन ने कश्मीर के मुद्दे को बड़े मंचों पर नहीं उठाया है.

तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने 24 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा को संबोधित करते हुए कश्मीर का ज़िक्र नहीं किया. ऐसा सालों बाद हुआ है, जब अर्दोआन ने संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर का मुद्दा नहीं उठाया.

लेकिन प्रोफ़ेसर एके पाशा का मानना है कि कश्मीर पर अर्दोआन का रुख़ भविष्य में और सख्त हो जाएगा.

2003 में प्रधानमंत्री और 2014 में राष्ट्रपति बनने के बाद अर्दोआन 10 से ज़्यादा बार पाकिस्तान का दौरा कर चुके हैं. इसी साल फ़रवरी में उनका हालिया पाकिस्तान दौरा था और उन्होंने पाकिस्तान को अपना ‘दूसरा घर’ बताया था.

इस दौरान दोनों देशों ने 24 समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे और पांच बिलियन डॉलर व्यापार के लक्ष्य पर राज़ी हुए थे.

डॉ. ओमैर अनस बताते हैं, “बीते दो दशक में तुर्की की नेटो पर पकड़ कमज़ोर हुई है. इसलिए बीस सालों में तुर्की ने रूस, चीन और पाकिस्तान से संबंध बनाए हैं. अगर नेटो में कुछ होता है तो तुर्की के लिए पाकिस्तान भी एक महत्वपूर्ण देश होगा.”

“दूसरा पहलू यह है कि हथियारों के मामले में एक तरफ़ पश्चिमी देश हैं तो दूसरी तरफ़ चीन और तुर्की भी उभरकर सामने आ गया है. भारत-पाकिस्तान संघर्ष में तुर्की अपने हथियारों का परीक्षण कर रहा था और वह चाहता है कि उसके हथियारों को पूरी दुनिया ख़रीदे.”

भू-राजनीतिक रूप से तुर्की खाड़ी क्षेत्र में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के नेतृत्व की चुनौती का सामना कर रहा है. इन देशों के प्रभाव को कम करने के लिए भी वह पाकिस्तान और मलेशिया जैसे ग़ैर-खाड़ी मुस्लिम देशों के साथ संबंध मज़बूत कर रहा है.

इसके साथ ही तुर्की हिंद महासागर पर अपना फ़ोकस बढ़ा रहा है. हाल के सालों में तुर्की की नौसेना और पाकिस्तानी नौसेना ने हिंद महासागर में कई साझा युद्ध अभ्यास किए हैं.

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